रात इक शख़्स बहुत याद आया
जिस घड़ी चाँद नुमूदार हुआ
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न जाने कौन अपाहिज बना रहा है हमें
हर इक फ़नकार ने जो कुछ भी लिक्खा ख़ूब-तर लिक्खा
ज़ौक़-ए-अमल के सामने दूरी सिमट गई
वक़्त जब राह की दीवार हुआ
जुनूँ-नवाज़ सफ़र का ख़याल क्यूँ आया
'शफ़क़' का रंग कितने वालेहाना-पन से बिखरा है
ख़ाक ओ ख़ला का हिसार और मैं
बहुत दिनों से इधर उस को याद भी न किया
यही नहीं कि नज़र को झुकाना पड़ता है
अंधेरा इतना है अब शहर के मुहाफ़िज़ को