आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
दिल-ए-मुज़्तर ने मिरे उन को सँवरने न दिया
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इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
आप जिस दिल से गुरेज़ाँ थे उसी दिल से मिले
'मीर'
इंतिहा-ए-इश्क़ हो यूँ इश्क़ में कामिल बनो
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
बताऊँ क्या कि मिरे दिल में क्या है
मंज़िल-ए-हस्ती में इक यूसुफ़ की थी मुझ को तलाश
हुस्न-ए-आरास्ता क़ुदरत का अतिय्या है मगर
भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है