तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
लिए हुए कोई यूँ साग़र-ए-शराब आया
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हमेशा से मिज़ाज-ए-हुस्न में दिक़्क़त-पसंदी है
देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना
इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह
सोज़-ए-ग़म से अश्क का एक एक क़तरा जल गया
ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी
ख़ुद चले आओ या बुला भेजो
फूट निकला ज़हर सारे जिस्म में
तह में दरिया-ए-मोहब्बत के थी क्या चीज़ 'अज़ीज़'
एक ही ख़त में है क्या हाल जो मज़कूर नहीं
वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं