इतना भी बार-ए-ख़ातिर-ए-गुलशन न हो कोई
टूटी वो शाख़ जिस पे मिरा आशियाना था
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बाज़ी-ए-इश्क़ मरे बैठे हैं
जाम ख़ाली जहाँ नज़र आया
इश्क़ जो मेराज का इक ज़ीना है
अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
तह में दरिया-ए-मोहब्बत के थी क्या चीज़ 'अज़ीज़'
दिल समझता था कि ख़ल्वत में वो तन्हा होंगे
दुनिया को वलवला दिल-ए-नाशाद से हुआ
हक़ारत से न देखो साकिनान-ए-ख़ाक की बस्ती
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
दिल के अज्ज़ा में नहीं मिलता कोई जुज़्व-ए-निशात
हिज्र की रात काटने वाले
ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते