अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तिरी अंगड़ाई का
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लज़्ज़त-ए-ग़म
उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
जो यहाँ महव-ए-मा-सिवा न हुआ
तक़लीद अब मैं हज़रत-ए-वाइज़ की क्यूँ करूँ
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
दिल के अज्ज़ा में नहीं मिलता कोई जुज़्व-ए-निशात
ऐ दिल ये है ख़िलाफ़-ए-रस्म-ए-वफ़ा-परस्ती
बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
लुत्फ़-ए-बहार कुछ नहीं गो है वही बहार
हिज्र की रात याद आती है