लुत्फ़-ए-बहार कुछ नहीं गो है वही बहार
दिल ही उजड़ गया कि ज़माना उजड़ गया
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ग़लत है दिल पे क़ब्ज़ा क्या करेगी बे-ख़ुदी मेरी
जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
हिज्र की रात याद आती है
कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
मेरे रोने पे ये हँसी कैसी
वही हिकायत-ए-दिल थी वही शिकायत-ए-दिल
दिल का छाला फूटा होता
ऐ दिल ये है ख़िलाफ़-ए-रस्म-ए-वफ़ा-परस्ती
भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
सबक़ आ के गोर-ए-ग़रीबाँ से ले लो
हादसात-ए-दहर में वाबस्ता-ए-अर्बाब-ए-दर्द
हुस्न-ए-आलम-सोज़ ना-महदूद होना चाहिए