जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
दिल मिरा टूटा हुआ आईना है
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कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
भड़क उट्ठेंगे शो'ले एक दिन दुनिया की महफ़िल में
जीते हैं कैसे ऐसी मिसालों को देखिए
मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह
ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
बचपने की याद
पैदा वो बात कर कि तुझे रोएँ दूसरे
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
कुछ हिसाब ऐ सितम ईजाद तो कर
दिल का छाला फूटा होता
दिल नहीं जब तो ख़ाक है दुनिया
बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है