बे-ख़ुदी कूचा-ए-जानाँ में लिए जाती है
देखिए कौन मुझे मेरी ख़बर देता है
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Allama Iqbal
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Parveen Shakir
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तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
ख़ुद चले आओ या बुला भेजो
अहद में तेरे ज़ुल्म क्या न हुआ
मिरे दहन में अगर आप की ज़बाँ होती
हिज्र की रात याद आती है
मुसीबत थी हमारे ही लिए क्यूँ
इंतिहा-ए-इश्क़ हो यूँ इश्क़ में कामिल बनो
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
हाए क्या चीज़ थी जवानी भी
दुनिया का ख़ून दौर-ए-मोहब्बत में है सफ़ेद
आईना छोड़ के देखा किए सूरत मेरी
वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं