दुनिया का ख़ून दौर-ए-मोहब्बत में है सफ़ेद
आवाज़ आ रही है लब-ए-जू-ए-शीर से
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'मीर'
बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
कर चुके बर्बाद दिल को फ़िक्र क्या अंजाम की
आतिश-ए-ख़ामोश
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
परतव-ए-हुस्न कहीं अंजुमन-अफ़रोज़ तो हो
बेकार ये ग़ुस्सा है क्यूँ उस की तरफ़ देखो
जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
मंज़िल-ए-हस्ती में इक यूसुफ़ की थी मुझ को तलाश
शम्अ' बुझ कर रह गई परवाना जल कर रह गया
हक़ारत से न देखो साकिनान-ए-ख़ाक की बस्ती