बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
ख़ुमार-आलूदा आँखें रात-भर की
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हमेशा तिनके ही चुनते गुज़र गई अपनी
मिरे दहन में अगर आप की ज़बाँ होती
सामने आइना था मस्ती थी
दिल आया इस तरह आख़िर फ़रेब-ए-साज़-ओ-सामाँ में
हुस्न-ए-आरास्ता क़ुदरत का अतिय्या है मगर
जब से ज़ुल्फ़ों का पड़ा है इस में अक्स
हमेशा से मिज़ाज-ए-हुस्न में दिक़्क़त-पसंदी है
तिरी कोशिश हम ऐ दिल सई-ए-ला-हासिल समझते हैं
ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
माना कि बज़्म-ए-हुस्न के आदाब हैं बहुत
कभी जन्नत कभी दोज़ख़ कभी का'बा कभी दैर
मैं तो हस्ती को समझता हूँ सरासर इक गुनाह