अहद में तेरे ज़ुल्म क्या न हुआ
ख़ैर गुज़री कि तू ख़ुदा न हुआ
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ऐ सोज़-ए-इश्क़-ए-पिन्हाँ अब क़िस्सा मुख़्तसर है
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
चश्म-ए-साक़ी का तसव्वुर बज़्म में काम आ गया
साफ़ बातिन देर से हैं मुंतज़िर
परतव-ए-हुस्न कहीं अंजुमन-अफ़रोज़ तो हो
इंतिहा-ए-इश्क़ हो यूँ इश्क़ में कामिल बनो
जो यहाँ महव-ए-मा-सिवा न हुआ
उदासी अब किसी का रंग जमने ही नहीं देती
देख कर हर दर-ओ-दीवार को हैराँ होना
तुम्हें हँसते हुए देखा है जब से
दिल हमारा है कि हम माइल-ए-फ़रियाद नहीं