हिज्र की रात काटने वाले
क्या करेगा अगर सहर न हुई
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जल्वा दिखलाए जो वो अपनी ख़ुद-आराई का
बाज़ी-ए-इश्क़ मरे बैठे हैं
चारागर चुप हैं क्यूँ इलाज करें
बनी हैं शहर-आशोब-ए-तमन्ना
मंज़िल-ए-हस्ती में इक यूसुफ़ की थी मुझ को तलाश
ये ग़लत है ऐ दिल-ए-बद-गुमाँ कि वहाँ किसी का गुज़र नहीं
तमाम अंजुमन-ए-वाज़ हो गई बरहम
हुस्न-ए-आलम-सोज़ ना-महदूद होना चाहिए
बताऊँ क्या कि मिरे दिल में क्या है
ये मशवरा बहम उठ्ठे हैं चारा-जू करते
न हुई हम से शब बसर न हुई
तिरी कोशिश हम ऐ दिल सई-ए-ला-हासिल समझते हैं