रोज़ मामूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'
ऐसी बस्ती को तो वीराना बनाया होता
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वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले
फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
यार था गुलज़ार था बाद-ए-सबा थी मैं न था
'ज़फ़र' बदल के रदीफ़ और तू ग़ज़ल वो सुना
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
लोगों का एहसान है मुझ पर और तिरा मैं शुक्र-गुज़ार
मैं सिसकता रह गया और मर गए फ़रहाद ओ क़ैस
वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है
सब मिटा दें दिल से हैं जितनी कि उस में ख़्वाहिशें