इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
पागलों को पागलों से दूर रहना चाहिए
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मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
आँखों में एक बार उभरने की देर थी
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो