इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
इंतिज़ार था लेकिन दर खुला नहीं रक्खा
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लाख टकराते फिरें हम सर दर-ओ-दीवार से
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
एक जैसे लग रहे हैं अब सभी चेहरे मुझे
दश्त में उड़ते बगूलों की ये मस्ती एक दिन
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
हम वो सहरा के मुसाफ़िर हैं अभी तक जिन की
दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती