हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
ख़ुद अपनी बात को कितना समझ रहे हैं हम
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कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए
दीद की तमन्ना में आँख भर के रोए थे
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
मैं क्या बताऊँ कैसी परेशानियों में हूँ
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता