हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
इस तरह तो और भी तेरी कमी बढ़ जाएगी
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मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
तू हमेशा माँगता रहता है क्यूँ ग़म से नजात
समुंदरों को भी दरिया समझ रहे हैं हम
हर एक रात में अपना हिसाब कर के मुझे
ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
आँखों में एक बार उभरने की देर थी
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते