ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
तुम एक बार में ग़र्क़ाब क्यूँ नहीं होते
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इक गर्दिश-ए-मुदाम भी तक़दीर में रही
मुस्तक़िल रोने से दिल की बे-कली बढ़ जाएगी
अब तो इतनी बार हम रस्ते में ठोकर खा चुके
जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं
हम सराबों में हुए दाख़िल तो ये हम पर खुला
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे