हम सराबों में हुए दाख़िल तो ये हम पर खुला
तिश्नगी सब में थी लेकिन तिश्नगी में कौन था
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बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
कुछ न कुछ सिलसिला ही बन जाता
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
आब की तासीर में हूँ प्यास की शिद्दत में हूँ
चाहतों के ख़्वाब की ताबीर थी बिल्कुल अलग
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है