बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
और मैं बाहर से अंदर की तरह लगने लगा
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हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
फिर वो बे-सम्त उड़ानों की कहानी सुन कर
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
उम्मीदों से पर्दा रक्खा ख़ुशियों से महरूम रहीं
मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
ख़्वाब जीने नहीं देंगे तुझे ख़्वाबों से निकल
मिरी ही बात सुनती है मुझी से बात करती है
इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे