मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
मुझ को आख़िर यूँ ही घुट कर कब तक रहना है
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मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है
अब तो इतनी बार हम रस्ते में ठोकर खा चुके
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
आईने से पर्दा कर के देखा जाए
मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
फिर वो बे-सम्त उड़ानों की कहानी सुन कर
जाने कितने लोग शामिल थे मिरी तख़्लीक़ में
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
आँखों में एक बार उभरने की देर थी