मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
मुझे जो कुछ भी कहना है उसे शेरों में कहता हूँ
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लाख टकराते फिरें हम सर दर-ओ-दीवार से
कब तलक चलना है यूँ ही हम-सफ़र से बात कर
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
ये क्या कि रोज़ पहुँच जाता हूँ मैं घर अपने
क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
पराया लग रहा था जो वही अपना निकल आया