ये क्या कि रोज़ पहुँच जाता हूँ मैं घर अपने
अब अपनी जेब में अपना पता न रक्खा जाए
Javed Akhtar
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Gulzar
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Jaun Eliya
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(732) Peoples Rate This
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
एक जैसे लग रहे हैं अब सभी चेहरे मुझे
लाख टकराते फिरें हम सर दर-ओ-दीवार से
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
ख़्वाब जीने नहीं देंगे तुझे ख़्वाबों से निकल
कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
उम्मीदों से पर्दा रक्खा ख़ुशियों से महरूम रहीं
चाहतों के ख़्वाब की ताबीर थी बिल्कुल अलग
जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं
ये सब तो दुनिया में होता रहता है