ये सब तो दुनिया में होता रहता है
हम ख़ुद से बे-कार उलझने लगते हैं
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इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
पराया लग रहा था जो वही अपना निकल आया
मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
ख़ुद पर जो ए'तिमाद था झूटा निकल गया
ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
हम वो सहरा के मुसाफ़िर हैं अभी तक जिन की
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं