ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
सहर होने से पहले ही जो बिस्तर छोड़ देते हैं
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सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
मैं क्या बताऊँ कैसी परेशानियों में हूँ
मुस्तक़िल रोने से दिल की बे-कली बढ़ जाएगी
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
हम वो सहरा के मुसाफ़िर हैं अभी तक जिन की
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर