आँखों में एक बार उभरने की देर थी
फिर आँसुओं ने आप ही रस्ते बना लिए
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मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
दीद की तमन्ना में आँख भर के रोए थे
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
चाहतों के ख़्वाब की ताबीर थी बिल्कुल अलग
मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता