इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
कब बुझ गए चराग़ हवा भी नहीं लगी
Wasi Shah
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दीद की तमन्ना में आँख भर के रोए थे
आँखों में एक बार उभरने की देर थी
मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
सवाब है या किसी जनम का हिसाब कोई चुका रहा हूँ
हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
वो चुप था दीदा-ए-नम बोलते थे
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे
आईने से पर्दा कर के देखा जाए
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी