किस गुल के तसव्वुर में है ऐ लाला जिगर-ख़ूँ
ये दाग़ कलेजे पे उठाना नहीं अच्छा
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बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी
ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से
बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा है
फ़साद-ए-दुनिया मिटा चुके हैं हुसूल-ए-हस्ती मिटा चुके हैं
छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
ख़याल-ए-नावक-ए-मिज़्गाँ में बस हम सर पटकते हैं
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा हो
आ जाए न दिल आप का भी और किसी पर
दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं
किसी पहलू नहीं आराम आता तेरे आशिक़ को