क़ब्र में राहत से सोए थे न था महशर का ख़ौफ़
बाज़ आए ऐ मसीहा हम तिरे एजाज़ से
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ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं
बख़्त ने फिर मुझे इस साल खिलाई होली
बात करने में जो लब उस के हुए ज़ेर-ओ-ज़बर
अजब जौबन है गुल पर आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी है
फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं
फिर मुझे लिखना जो वस्फ़-ए-रू-ए-जानाँ हो गया
बुत-ए-काफ़िर जो तू मुझ से ख़फ़ा है
फ़साद-ए-दुनिया मिटा चुके हैं हुसूल-ए-हस्ती मिटा चुके हैं
दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
ये कह दो बस मौत से हो रुख़्सत क्यूँ नाहक़ आई है उस की शामत
आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया