रुख़-ए-रौशन पे उस की गेसू-ए-शब-गूँ लटकते हैं
क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन को भटकते हैं
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न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे
ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से
रहमत का तेरे उम्मीद-वार आया हूँ
दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा
मर गए हम पर न आए तुम ख़बर को ऐ सनम
बैठे जो शाम से तिरे दर पे सहर हुई
उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले
असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं
जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है
बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आएगी
छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कहीं तुम्हें
ग़ाफ़िल इतना हुस्न पे ग़र्रा ध्यान किधर है तौबा कर