रूदाद-ए-शब-ए-ग़म यूँ डरता हूँ सुनाने से
महफ़िल में कहीं उन की सूरत न उतर जाए
Anwar Masood
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अगर मैं उन की निगाहों से गिर गया होता
ज़र्रे ज़र्रे में महक प्यार की डाली जाए
वाइज़ तू अगर उन के कूचे से गुज़र जाए
अपने दुश्मन को भी ख़ुद बढ़ के लगा लो सीने
ज़िंदगी कर गई तूफ़ाँ के हवाले मुझ को
क्या ख़बर थी मुन्हरिफ़ अहल-ए-जहाँ हो जाएँगे
आख़िरी वक़्त तलक साथ अंधेरों ने दिया
मुस्कुरा कर उन का मिलना और बिछड़ना रूठ कर
गर तरन्नुम पर ही 'दानिश' मुनहसिर है शाइरी
हो के मजबूर ये बच्चों को सबक़ देना है
तेरे फ़िराक़ ने की ज़िंदगी अता मुझ को