हो के मजबूर ये बच्चों को सबक़ देना है
अब क़लम छोड़ के तलवार उठा ली जाए
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अगर मैं उन की निगाहों से गिर गया होता
ज़र्रे ज़र्रे में महक प्यार की डाली जाए
गर तरन्नुम पर ही 'दानिश' मुनहसिर है शाइरी
अपने दुश्मन को भी ख़ुद बढ़ के लगा लो सीने
क्या ख़बर थी मुन्हरिफ़ अहल-ए-जहाँ हो जाएँगे
ज़िंदगी कर गई तूफ़ाँ के हवाले मुझ को
रूदाद-ए-शब-ए-ग़म यूँ डरता हूँ सुनाने से
मुस्कुरा कर उन का मिलना और बिछड़ना रूठ कर
तेरे फ़िराक़ ने की ज़िंदगी अता मुझ को
आख़िरी वक़्त तलक साथ अंधेरों ने दिया