अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं
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लम्हा लम्हा वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ की सैर की
वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे
यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं
कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ
मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और