बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
हर इक चराग़ से आख़िर धुआँ निकलता है
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सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी
अक्स मंज़र में पलटने के लिए होता है
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और
मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था
उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
कुछ भी नहीं है ख़ाक के आज़ार से परे
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
ख़ुद अपनी आग में सारे चराग़ जलते हैं