चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
फूल लाया हूँ मिरा हाथ कहाँ तक जाता
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मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था
मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
आँख में ख़्वाब ज़माने से अलग रक्खा है