मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
मिरा दुश्मन अकेला रह गया था
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अक्स मंज़र में पलटने के लिए होता है
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे
अजीब रंग अजब हाल में पड़े हुए हैं
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था
मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे
कुछ भी नहीं है ख़ाक के आज़ार से परे
सात दरियाओं का पानी है मिरे कूज़े में
उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है
बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता