उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
मैं परेशान हुआ जिस की परेशानी पर
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कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं
दरून-ए-ख़्वाब नया इक जहाँ निकलता है
कुछ भी नहीं है ख़ाक के आज़ार से परे
हवा ने इस्म कुछ ऐसा पढ़ा था
ख़ुद अपनी आग में सारे चराग़ जलते हैं
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और