एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
ख़ुद को अपने साथ रक्खा जिस जहाँ की सैर की
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कुछ भी नहीं है ख़ाक के आज़ार से परे
यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ
ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी
कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं
नींद में खुलते हुए ख़्वाब की उर्यानी पर
वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था
इक दिन जो यूँही पर्दा-ए-अफ़्लाक उठाया
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता
उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना