इक दिन जो यूँही पर्दा-ए-अफ़्लाक उठाया
बरपा था तमाशा कोई तन्हाई से आगे
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एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे
अक्स मंज़र में पलटने के लिए होता है
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
खींच कर अक्स फ़साने से अलग हो जाओ
बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता
लम्हा लम्हा वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ की सैर की
मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे
यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं