सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
हमारे हाथ में इक आईना था
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ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और
'आज़र' रहा है तेशा मिरे ख़ानदान में
तुम ख़ुद ही दास्तान बदलते हो दफ़अतन
ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी
आँख में ख़्वाब ज़माने से अलग रक्खा है
सात दरियाओं का पानी है मिरे कूज़े में
बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे