सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है
ये लोग किस लिए जंजाल में पड़े हुए हैं
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
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Anwar Masood
Mohsin Naqvi
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Ahmad Faraz
Allama Iqbal
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तुम ख़ुद ही दास्तान बदलते हो दफ़अतन
सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
दूर के एक नज़ारे से निकल कर आई
बना रहा था कोई आब ओ ख़ाक से कुछ और
कुछ भी नहीं है ख़ाक के आज़ार से परे
आग लग जाएगी इक दिन मिरी सरशारी को
ख़ुद अपनी आग में सारे चराग़ जलते हैं
नींद में खुलते हुए ख़्वाब की उर्यानी पर
इक दिन जो यूँही पर्दा-ए-अफ़्लाक उठाया
ख़ुद में खिलते हुए मंज़र से नुमूदार हुआ
चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
बोझ उठाए हुए दिन रात कहाँ तक जाता