गुज़र रहा हूँ मैं सौदा-गरों की बस्ती से
बदन पे देखिए कब तक लिबास रहता है
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नक़्श-बर-आब हो गया हूँ मैं
वो एक पल की रिफ़ाक़त भी क्या रिफ़ाक़त थी
मिट गया ग़म तिरे तकल्लुम से
उसे ये हक़ है कि वो मुझ से इख़्तिलाफ़ करे
कितने बा-होश हो गए हम लोग
ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग
तालाब तो बरसात में हो जाते हैं कम-ज़र्फ़
रंग मौसम के साथ लाए हैं
ख़ुश्क दरिया पड़ा है ख़्वाहिश का
साए में आबलों की जलन और बढ़ गई
अब कर्ब के तूफ़ाँ से गुज़रना ही पड़ेगा
अभी से पाँव के छाले न देखो