तालाब तो बरसात में हो जाते हैं कम-ज़र्फ़
बाहर कभी आपे से समुंदर नहीं होता
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मिट गया ग़म तिरे तकल्लुम से
अब कर्ब के तूफ़ाँ से गुज़रना ही पड़ेगा
अभी से पाँव के छाले न देखो
कितने बा-होश हो गए हम लोग
हवा के वास्ते इक काम छोड़ आया हूँ
उसे ये हक़ है कि वो मुझ से इख़्तिलाफ़ करे
ज़ालिम से मुस्तफ़ा का अमल चाहते हैं लोग
नक़्श-बर-आब हो गया हूँ मैं
वो एक पल की रिफ़ाक़त भी क्या रिफ़ाक़त थी
हँसी लबों पे सजाए उदास रहता है
फ़ितरत के तक़ाज़े कभी बदले नहीं जाते