ऐ संग-ए-आस्ताँ मिरे सज्दों की लाज रख
आया हूँ ए'तिराफ़-ए-शिकस्त-ए-ख़ुदी लिए
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जिस को देखो बेवफ़ा है आइनों के शहर में
बरसों में भी छू जाए किसी को तो ग़नीमत
किसी के शिकवा-हा-ए-जौर से वाक़िफ़ ज़बाँ क्यूँ हो
आप आए हैं हाल पूछा है
मदावा-ए-जुनूँ सैर-ए-गुलिस्ताँ से नहीं होता
कहाँ सबात-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ सराब-ए-सुकूँ
चुप खड़े हैं दरमियान-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना हम
मैं उस के ऐब उस को बताता भी किस तरह
कार-ए-ख़ैर इतना तो ऐ लग़्ज़िश-ए-पा हो जाता
दिल बुझ गया तो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं
राह-ए-तलब में अहल-ए-दिल जब हद-ए-आम से बढ़े
याद उन की दिल में आई वो आसूदगी लिए