बरसों में भी छू जाए किसी को तो ग़नीमत
ख़ुशबू-ए-वफ़ा यारो बड़ी सुस्त-क़दम है
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राह-रौ बच के चल दरख़्तों से
किसी के शिकवा-हा-ए-जौर से वाक़िफ़ ज़बाँ क्यूँ हो
कार-ए-ख़ैर इतना तो ऐ लग़्ज़िश-ए-पा हो जाता
राह-ए-तलब में अहल-ए-दिल जब हद-ए-आम से बढ़े
ऐ संग-ए-आस्ताँ मिरे सज्दों की लाज रख
चुप खड़े हैं दरमियान-ए-का'बा-ओ-बुत-ख़ाना हम
दरबानों तक के चेहरे रऊनत से मस्ख़ हैं
कहाँ सबात-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ सराब-ए-सुकूँ
मदावा-ए-जुनूँ सैर-ए-गुलिस्ताँ से नहीं होता
ख़ून-ए-नाहक़ थी फ़क़त दुनिया-ए-आब-ओ-गिल की बात
मैं उस के ऐब उस को बताता भी किस तरह