चढ़ते सूरज की मुदारात से पहले 'एजाज़'
सोच लो कितने चराग़ उस ने बुझाए होंगे
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किसी के शिकवा-हा-ए-जौर से वाक़िफ़ ज़बाँ क्यूँ हो
राह-रौ बच के चल दरख़्तों से
मदावा-ए-जुनूँ सैर-ए-गुलिस्ताँ से नहीं होता
जिस को देखो बेवफ़ा है आइनों के शहर में
बरसों में भी छू जाए किसी को तो ग़नीमत
ख़ून-ए-नाहक़ थी फ़क़त दुनिया-ए-आब-ओ-गिल की बात
कार-ए-ख़ैर इतना तो ऐ लग़्ज़िश-ए-पा हो जाता
याद उन की दिल में आई वो आसूदगी लिए
आप आए हैं हाल पूछा है
कहाँ सबात-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ सराब-ए-सुकूँ
दरबानों तक के चेहरे रऊनत से मस्ख़ हैं