हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं
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ग़म-ए-जहाँ हो रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू
शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
जब तेरी समुंदर आँखों में
ज़िंदाँ की एक सुब्ह
दीवार-ए-शब और अक्स-ए-रुख़-ए-यार सामने
फूल मुरझा गए सारे
नौहा
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
तेरी सूरत जो दिल-नशीं की है
लेनिन-ग्राड का गोरिस्तान
निसार मैं तेरी गलियों के
बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते