कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन
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ग़म हर इक आँख को छलकाए ज़रूरी तो नहीं
घर हुआ गुलशन हुआ सहरा हुआ
यूँ इंतिक़ाम तुझ से फ़स्ल-ए-बहार लेंगे
दिल से अगर कभी तिरा अरमान जाएगा
तर्क-ए-वतन के बाद ही क़द्र-ए-वतन हुई
ऐ जल्वा-ए-जानाना फिर ऐसी झलक दिखला
ऐ हुस्न ज़माने के तेवर भी तो समझा कर
जब भी नज़्म-ए-मै-कदा बदला गया
कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
चेहरा-ए-सुब्ह नज़र आया रुख़-ए-शाम के बाद
ज़िंदगी नाम है इक जोहद-ए-मुसलसल का 'फ़ना'