ऐ जल्वा-ए-जानाना फिर ऐसी झलक दिखला
हसरत भी रहे बाक़ी अरमाँ भी निकल जाए
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साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर
यूँ दिखाता है आँखें हमें बाग़बाँ
क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात भी क्या चीज़ है 'फ़ना'
ऐ हुस्न ज़माने के तेवर भी तो समझा कर
वो ख़ानुमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे
झूटी ही तसल्ली हो कुछ दिल तो बहल जाए
अंधेरों को निकाला जा रहा है
मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं
इक तिश्ना-लब ने बढ़ के जो साग़र उठा लिया
वो आँख क्या जो आरिज़ ओ रुख़ पर ठहर न जाए
चेहरा-ए-सुब्ह नज़र आया रुख़-ए-शाम के बाद
इस तरह रहबर ने लूटा कारवाँ