वो आँख क्या जो आरिज़ ओ रुख़ पर ठहर न जाए
वो जल्वा क्या जो दीदा ओ दिल में उतर न जाए
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कुछ दर्द की शिद्दत है कुछ पास-ए-मोहब्बत है
तू कुछ तो मिरे ज़ब्त-ए-मोहब्बत का सिला दे
जब मेरे रास्ते में कोई मय-कदा पड़ा
चेहरा-ए-सुब्ह नज़र आया रुख़-ए-शाम के बाद
रिंद जन्नत में जा भी चुके
ऐ जल्वा-ए-जानाना फिर ऐसी झलक दिखला
रहता है वहाँ ज़िक्र-ए-तुहूर-ओ-मय-ए-कौसर
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर
इस तरह रहबर ने लूटा कारवाँ
गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं
कोई पाबंद-ए-मोहब्बत ही बता सकता है
तिरे वादों पे कहाँ तक मिरा दिल फ़रेब खाए